रौशनदान से आती किरणे,
सपनों से जगाती है,
ये अन्वेषी आँखें,
खड़ी हो रौशनदान को ताकती है,
मेरा तन मिट्टी की सरोह में है,
क्षमता से छिन्न हुँ,
और लाचार बिना कदमों के,
तंग जमाने के सूरते हाल को देखता हूँ,
कभी नामवर को देखता हूँ ,
कभी यायावर को देखता हूँ ।
कभी खिड़कियों से गुज़रती हवाएँ कह जाती है ,
उठ ओ लंगड़े दाव लगा जा,
जी के नहीं तो मर के दिखा जा,
बहोत सो लिये चार पायो में,
चल आगे कुछ कर के दिख जा ।
उठ कर हौशले से जो चाहु,
हौशले संग फिर गिरजाता हुँ,
आँखे बंद कर वहीं सो जाता हूँ ।
अगले दिन जब फिर जग जाता हूँ,
फिर ज़िन्दगी यही किस्सा दोहराती है,
रौशनदान आती किरणे,
जब सपनों से जगाती है ।।
©nawaab