आग है, इक आग है,
जो दर्द की हुँकार है,
जलते जहाँ ग़म थे कभी,
अब जल रहें इंसान है ।।
न सोंचता कहाँ बढ़ रहा,
क्या कर इंसान है,
बस लालसा की आग में ही,
बन रहा हैवान है ।।
ख्वाबों की झूठी साज़िशों में
बढ़ रही जो तृष्णा है,
ये मेरे मन की तृष्णा है,
ये तेरे मन की तृष्णा है,
ये कैसे मृग की तृष्णा है ।।
खूबसूरत कविता।👌👌
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